एक खु़श्क खा़मोश हसीन चेहरा
बिल्कुल सादा काग़ज़ की तरह
कि आपके लबों को लफ़्ज़ मिलें
और वह मुताबिक़ बदल जाये…
एक जैसे थे दोनों
मेरी मोहब्बत और उसकी सादगी
इनायत ऐसी
कि खु़दा भी मरहबा कह दे…
आज यह उन्स कैसा लम्स कैसे
अजनबी कुछ पन्ने खुलने लगे
इक बार फिर मैं अपनी समझ से परे हो गया
वह मुझको सँभाला दे…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १३/जून/२००३