मैं कभी सोचता हूँ कि
मेरी दुनिया क्या है?
ये दिल है
जो प्यार जैसे हुस्न के लिए तड़पता है
या वो
जिसका नाम ज़ुबाँ पर आते ही
फ़िज़ा में रंग घुल जाते हैं…
इक रोज़ मेरी मोहब्बत तारीख़ होगी
मेरी बात बारीक़ से भी बारीक़ होगी
मैं इश्क़ की जिस हद से गुज़र गया हूँ
क्या तू कभी उसमें शरीक़ होगी
शुआ किस सहर का इंतज़ार करती है
शायद तेरी नज़र से तख़लीक़ होगी
तेरी सादगी के सदक़े मरना चाहता हूँ
क्या कोई नीयत इतनी शरीफ़ होगी
मोहब्बत जो करे कोई तो रूह से करे
वरना बादे-मर्ग तकलीफ़ होगी
Penned on 01 January 2005
2 replies on “फ़िज़ा में रंग घुल जाते हैं”
तेरी सादगी के सदक़े मरना चाहता हूँ
क्या कोई नीयत इतनी शरीफ़ होगी
My favourite lines! well written!
Thanks, Meenakshi ji!