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मेरी नज़्म

मैं और तुम कभी आशना थे

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पिछली रात तेरी यादों की झड़ी थी
मन भीग रहा था
जैसे-जैसे रात बढ़ती थी
चाँद से और जागा नहीं जा रहा था…

बेचारी नींद!!!
आँखों से यूँ ओझल थी
जैसे कि कुछ खो गया हो उसका
जब आँखों में नींद ही नहीं थी
तो क्या करता…?
तुम में मुझमें जो कुछ था
उसे तलाशता रहा सारी रात
सारी कहानी उधेड़कर फिर से बुनी मैंने
तुमने कहाँ से शुरु किया था
कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा था
नोचता रहा सारी रात अपने ज़ख़्मों को
ज़ख़्म ही कहना ठीक होगा
दर्द-सा हो रहा था
साँस बदन में थम-थम के आ रही थी
कभी आँसू कभी ख़लिश
तुमने ग़लत किया – या मुझसे ग़लत हुआ
कोई तो रिश्ता था
जिसमें साँस आने लगी थी
मगर किसी की नज़र लग गयी शायद…
साँस तो आ चुकी थी मगर
रिश्ता वो अभी नाज़ुक़ था
अगर मैं कुछ कहता तो तुम कुछ न सुनती
न कुछ मैं समझने के मन से था
वक़्त बीतता रहा
जो तुम कर सकती थी – तुमने किया
जो मैं कर सकता था – मैं कर रहा हूँ

फिर भी तुम्हारी आँखों का सूखा नमक
यादों की गर्द के साथ उड़ता हुआ
मेरे ताज़ा ज़ख़्मों को गला रहा है
जाने किसका कसूर है
जिसको तुम भुगत रही हो
जिसको मैं भुगत रहा हूँ
एक दोस्ती से ज़्यादा तो मैंने कुछ नहीं चाहा
तुमको जितना दिया
तुमसे जितना चाहा…
सब दोस्ती की इस लक़ीर के इस जानिब था
वो कैसा सैलाब था?
जिसमें तुम उस किनारे जा लगे
मैं इस किनारे रह गया
और हमेशा यही सोचता रहा
कि तुम मिलो तो तुम्हें ये एहसास कराऊँ
कि तुमने क्या खोया
मैं सचमुच नहीं जानता कि
तुम किस बात से नाराज़ हो,
तुम्हारे ख़फ़ा होने की वजह क्या है?
मगर ये एहसास-सा है मुझको
कि तुम किसी बात के लिए कसूरवार नहीं हो
अगर मैं ये समझता हूँ
तुम इसे सोचती हो
तो दरम्याँ यह जो एक रास्ता है
तुम्हें दिखायी क्यों नहीं देता
पहले अगर तुमने पिछली दफ़ा बात की थी
तो इस दफ़ा क्यों नहीं करती
क्या वो दोस्ती फिर साँस नहीं ले सकती
क्या इन ज़ख़्मों का कोई मरहम नहीं

क्यों वो मुझे इस तरह से देखती है
जैसे कि तुम उससे कहती हो
“ज़रा देखकर बताना तो! क्या वो इधर देखता है?”

अगर मेरे पिछले दो ख़ाब सच हुए हैं
तो ज़रूर मेरे ऐसा लगने में
कुछ तो सच ज़रूर छिपा होगा
मैंने कई बार महसूस किया है
तुमको मेरी आवाज़ बेकस कर देती है
तुम थम जाती हो, ठहर जाती हो
कोशिश करते-करते रह जाती हो
कि न देखो मुझको –
मगर वो बेकसी कि तुम देख ही लेती हो

मैं कल भी वही था
मैं आज भी वही हूँ
मुझे लगता है कि तुम भी नहीं बदली
फिर क्यों फर्क़ आ गया है
तुम्हारे नज़रिए में –
मैं जानता हूँ ये नज़रिया बनावटी है, झूठा है
आइने की तरह तस्वीर उलट के दिखाता है

कभी-कभी ख़ुद को समझ पाना
कितना मुश्किल होता है
ऐसे में दूसरों का सच परखना सचमुच मुश्किल है
मैं यहाँ आकर आधी राह पर
सिर्फ़ तुम्हारे लिए ठहर गया हूँ
आधा चलकर मैं आ गया हूँ
बाक़ी फ़ासला तुम्हें कम करना है
मेरी आँखों में पढ़ लो सच –
ये अजनबी तो नहीं
कभी तो तुम भी इनसे आशना रह चुकी हो
सारी बात झुकी हुई आँखों में है
अपनी होटों से कह दो –
‘मैं और तुम कभी आशना थे’

Penned on 01 January 2005

By Vinay Prajapati

Vinay Prajapati 'Nazar' is a Hindi-Urdu poet who belongs to city of tahzeeb Lucknow. By profession he is a fashion technocrat and alumni of India's premier fashion institute 'NIFT'.

2 replies on “मैं और तुम कभी आशना थे”

बेहद खूबसूरत……..कभी हममें तुममे करार था…तुम्हें याद हो के न याद हो….
अनु

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