हम सचमुच ही इक ख़ाब हुए
किसी की निगाहों का शिग़ाफ़ हुए
हम बेपरवाह थे कि ख़ाक हुए
बहार में भी ख़िज़ाँ की शाख़ हुए
उसकी चाहत मुहब्बत थी
न समझ थे हम बरबाद हुए
वो फूल था हमें ख़ुशबू समझा
और हम चमन में आबाद हुए
यही है तक़दीरे-मुहब्बत
आबाद होकर बरबाद हुए
आईना भी आज हमसे पूछ बैठा
‘विनय’ जलते हो कि राख हुए
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२