हर रोज़ लकीरें बनती हैं
हर रोज़ लकीरें मिटती हैं मेरे हाथों से
इक तेरा नाम नहीं मिटता
तेरा चाँद नहीं मिटता है मेरे हाथों से
ख़ाबों की आँधी आती है
ख़ुशबू सौंधी लाती है
तक़दीरों के साये में जो साँसे जीती हैं
वह चाँद की मिसरी से मीठी हैं
आ साँसों को उलझाते हैं
साँसों में उलझ जाते हैं
ऐसे उलझा लो जिस्म कि सुलझे न कभी
आ तक़दीर को बुन दे कुछ ऐसे अभी
हर रोज़ लकीरें बनती हैं
हर रोज़ लकीरें मिटती हैं मेरे हाथों से
इक तेरा नाम नहीं मिटता
तेरा चाँद नहीं मिटता है मेरे हाथों से
आँखों की किताबें पढ़ते हैं
आँखों में तस्वीरें मढ़ते हैं
तुझे देखके मौसम में सावन उड़ते हैं
तेरे रंग में ढलके गुल शाख़ों पे चढ़ते हैं
जब बरसें यह सावन सारे
तन लगते आँच के फव्वारे
अन्दाज़ बदलती है सबा तेरे जिस्म को छूके
घाव बुझाने को कब तक कोई साँसें फूँके
हर रोज़ लकीरें बनती हैं
हर रोज़ लकीरें मिटती हैं मेरे हाथों से
इक तेरा नाम नहीं मिटता
तेरा चाँद नहीं मिटता है मेरे हाथों से
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२