क्यों यह रात अजनबी लग रही है
क्यों यह चाँद अजनबी लग रहा है
अपना-अपना-सा था कल तक समा
क्यों आज यह बेग़ाना लग रहा है
न कोई अजनबी है न कुछ बेग़ाना है
शायद यह पहले प्यार का एहसास है
जहाँ मैं ख़ुद को अजनबी लग रही हूँ
जहाँ तू ख़ुद को अजनबी लग रहा है
क्यों यह रात अजनबी लग रही है
क्यों यह चाँद अजनबी लग रहा है
तमाम एहसास उठे हैं मलमल से
मैं बैठी हूँ आइनें के सामने कल से
मेरी आँखों ने कोई रंग बदला नहीं
क्यों चाँद गुलाबी-गुलाबी लग रहा है
क्यों यह रात अजनबी लग रही है
क्यों यह चाँद अजनबी लग रहा है
क्यों तू मुझे अपनी-अपनी लग रही है
क्यों मैं ख़ुद को तेरा लग रहा हूँ
बड़ी सिलसिलेवार है ख़्यालों की भीड़
सब-कुछ बदला-बदला लग रहा है
क्यों यह रात अजनबी लग रही है
क्यों यह चाँद अजनबी लग रहा है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२