जाने क्या ढूँढ़ता हूँ बे-दर्द ज़माने में
बड़ा दर्द है अपना किरदार निभाने में
धीरे-धीरे ज़माने के साथ चलते रहे
फासलों को नज़दीकियों में बदलते रहे
समझते थे यह करना हमारी गरज़ है
अब न करें तो इसमें क्या हरज़ है
हर जगह क्या हम ही फर्ज़ निबाहेंगे
और वह ग़ुरूर करके बस इतरायेंगे
वह मान बैठे हैं वह हमसे उम्दा हैं
यह साबित कर दिखायेंगे हम उम्दा हैं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२