वो इल्ज़ाम हम पे मुसलसल लगाता गया
ग़लतियाँ हमारी मुफ़्स्सल बताता गया
कह के बार-बार उस को अच्छा मेरे सामने
वाइज़ मेरे ज़ख़्मे-जिगर सहलाता गया
हौसले की दीवार चुनता हूँ फिर से एक बार
बारहा कोई झोंका जिसकी ईंटे गिराता गया
आज का दिन और वो दिन जब हम बलंदी पर थे
इक तेरे नाम से मैं दुनिया को ठुकराता गया
अब तो सोचा है न फ़िक्र किसी की करेंगे तेरे सिवा
मगर तेरा न होना भी तो मुझको डुबाता गया
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४