क़तरे हुए
कुछ लफ़्ज़
अटके हुए हैं
ज़बाँ के
इक ख़ार से
उतरेंगे
जब भी किसी
काग़ज़ पर
लहू लुहान
ही उतरेंगे
और जब
ताज़ा लहू
सूखेगा
कुछ काले चकते
रह जायेंगे,
सहमे हुए
काग़ज़ पर
डरा हुआ काग़ज़
चीखेगा भी तो क्या?
सिर्फ़ –
ख़ामोशी ही ना!
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३