कुछ तो था दरम्याँ जिसे वो न समझा
मैं ग़म न समझा वो शाद न समझा
मैं कितना बोलता था उससे मगर
फिर भी वो मुझको कमनुमा समझा
है ग़लती मेरी मैंने छोड़कर तुझको
किसी बुत को अपना खु़दा समझा
किससे क्या माँगता मैं खुलकर कभी
हर हक़ीक़त को मैंने सपना समझा
अपने प्यार पर रखता था यक़ीन
मैं उसके प्यार को कभी ना समझा
ज़हर था जो ज़िन्दगी में यक़ीनन
‘नज़र’ क्यों उसे तूने दवा समझा
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’