क्या वह तुम थे
जो आँखों को महका गये
तमन्ना दबी-सी
मेरे दिल में सुलगा गये
मैं कितना तन्हा फिर रहा था
जी रहा था यों कि
रोज़ मर रहा था
तुमने जो धड़कनें जवाँ कीं
मुझको ख़्यालों में उलझा गये
शाम के साथ तुमको देखकर
बेक़ाबू हो गया मैं
क्या कहूँ ख़ुद को
अन्जाम-ए-जुस्त-जू हो गया मैं
दूरियों का यह परदा
उठ जाये ज़रा
तुम अरमान मेरे पिघला गये
यह तस्वीरे-नशा
मैं पलकों से उठाऊँ कैसे
डर लगता है
खो जाये न कहीं
इक बार तो गुज़रो
मेरे दर से कि मैं समझूँ
तुम हो यहीं
तुम ढलती शाम
यह कैसे ख़ाब दिखला गये
मेरी साँसों को यह ठण्डक
कैसी पड़ गयी है
एक चाहत के ख़ाब की
शमअ जल गयी है
मैं बदला कहाँ हूँ वही हूँ
तुम जानम मुझे
बीती गलियाँ लौटा गये
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३