मासूम-सा ख़ाब आया था
ज़िन्दगी में मुस्कुराते हुए
मैं भी साथ चल पड़ा था
इतराते इठलाते हुए…
एक पल को यूँ लगा था
जैसे जन्नत मिल गयी है
ख़ाब टूटा तो मैंने पाया,
ख़ुद को आइने से छिपाते हुए
एक पल जो बीता बैरी
एक जुग-सा तरसाये
आँख में गड़ते हैं ख़ाब के टुकड़े
कोई कैसे इन्हें चुन पाये
यह मन की तरस है
पानी से न तर पायेगी
जब तक देखे न तुम्हें
आँखों से क्यों उतर जायेगी
ख़ाबों में तुम ही तुम थे
थोड़ी ख़ुशी थोड़े ग़म थे
क्या पीछे छोड़ आये हैं
किन शाख़ों को तोड़ आये हैं
उँगलियों पर गिन रही है
रात मेरे लिखे तराने
कितने लिखे हैं तुमने
मुझसे जुदा अफ़साने
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२