माज़ी को बहुत खंघालते हैं लोग
बेतरह मतलब निकालते हैं लोग
हुआ कब मुझ से उनका बुरा
किसलिए नाम मेरा उछालते हैं लोग
ग़लतफ़हमियों की आदत है उन्हें
ग़लतफ़हमियाँ पालते हैं लोग
अपनी पे जब बन आयी है तो देखा है
किस तरह मुझे टालते हैं लोग
मुझे जो देखते हैं गिरता हुआ कहीं
दिखावे के लिए सँभालते हैं लोग
किस तरह यारब समझाऊँ इन्हें
मेरे लहू को बारहा उबालते हैं लोग
कुरेदते हैं वक़्त-ब-वक़्त मुझे
ज़ख़्मों पे रोज़ नमक डालते हैं लोग
बनाते हैं रोज़ नयी कहानियाँ ये
मुझे नये क़िस्से में ढालते हैं लोग
बनकर आते हैं हमदर्द मेरे
और आँखों में मिर्च चालते हैं लोग
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २० सितम्बर २००४