नामालूम वह दिन मैंने
जन्नत में गुज़ारे या जहन्नुम में
मगर बीते हुए दिन
मुझे आज भी ढ़ूँढते हैं
वह ताने जो लोगों ने मुझे दिये
वह कशिश जिसने मुझे खेंचा
वह जिससे यह देखा ना गया
जाने किसका मन साफ़ था इनमें
मगर बीते हुए दिन
मुझे आज भी ढ़ूँढते हैं…
गोया इक चुभन दिल में हो
दमाग़ फिर कहीं भटक जाता है
आसूँ टूटते हैं बुझते हैं बनते हैं
मगर टीस दबती नहीं किसी तह में
नामालूम वह दिन मैंने
जन्नत में गुज़ारे या जहन्नुम में…
इंतज़ार कोई नहीं करता किसी का
बहते रहते हैं सब नदियों की तरह
या बाँधों की तरह मन बाँध दिया जाता है
कभी दौलत में कभी मरासिम में
मगर बीते हुए दिन
मुझे आज भी ढ़ूँढते हैं…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’