यह कौन-सा मुक़ाम है?
जहाँ आकर सब चेहरे एक-से हो जाते हैं
दिल रेत बनकर सीने में
गहरा और गहरा धँसने लगता है
धड़कनें गु़मशुदा हो जाती हैं
साँस-साँस हर नस फटने लगती है
हर बात अपनी हर बात
पत्थरों से टकराकर सुनायी देती है
आवाज़ें मानूस जानी-पहचानी
सर पर पत्थरों की तरह चोट करती हैं
मिलने वाले आते हैं
बैठते हैं सुनाते हैं चले जाते हैं
मैं जिस ओर भी जाता हूँ
उस राह की उम्र कुछ और बढ़ जाती है
यह कौन-सा मुक़ाम है?
जहाँ आकर सब चेहरे एक-से हो जाते हैं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’