क्या आज उसने सच कहा
क्या मुझे ‘तुम्हें’ भूल जाना चाहिए
क्या वह तुम ही हो
जिसने मेरी सोच का दायरा बाँध दिया है
क्या सचमुच ऐसा ही है
क्या तुमसे आज़ाद होकर मैं
एक क़ामयाब शख़्स हो पाऊँगा
क्या ऐसा है कि मैं तुम्हें भूलकर
कोई खु़शी कोई मंज़िल पा सकूँगा
क्या मेरी दुनिया तुम बिन
किसी नयी सोच के साथ
इस तरह फिर कभी हसीन होगी
क्या आज उसने सच कहा कि
मैं तुम्हारे पीछे दौड़ते-दौड़ते
अपनी राहे-मंज़िल से भटक गया हूँ
क्या उसकी यह बात मुझे मान लेनी चाहिए
और तुम्हें भूल जाना चाहिए
आख़िर वह ऐसा क्यों कह रहा है
उसका मक़सद क्या है
क्या उसने सचमुच एक दोस्त की तरह बात की
या फिर जिस तरह से वह दूसरों से
अपने रिश्तों को नहीं रखता
उसी तरह से वह मुझसे
मेरी आख़िरी जिजीविषा भी छीन लेना चाहता है
मगर क्यों आख़िर क्यों
मैं यह सवाल खु़द से कर रहा हूँ
क्या आज उसने सच कहा
नहीं वह झूठा है… बातिल है…
मुझे उसकी बातों में नहीं आना चाहिए
हाँ यही ठीक है…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’