न तो काफ़िर ना ही मुस्लमाँ हूँ मैं
नेकी है मज़हब मेरा कि इन्साँ हूँ मैं
आया जो मेरी ज़िन्दगी में चला गया
कहीं खु़द में ही ज़ख़्मे-निहाँ हूँ मैं
दुनिया को बाँट दो सौ मज़हबों में
मगर एक जंज़ीर सबके दर्मियाँ हूँ मैं
लगा जो किसी परी-रू से दिल मेरा
नामालूम फिर कहाँ से कहाँ हूँ मैं
न रखे वह कोई उम्मीद मुझसे
कोई आग़ाज़ नहीं इन्तहाँ हूँ मैं
क़द मेरा बहुत छोटा है दुनिया में
मगर ऊँचा दिमाग़ो – दहाँ हूँ मैं
दोस्त से ज़्यादा मुक़ाबिल हैं मेरे
यूँ लगता है कि आलि-ए-दौराँ हूँ मैं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’