रेतीली ज़मीं, सूखी नदी
बिल्कुल वैसे ही पड़े हैं, आज तक
वो निशाँ…
जो कभी नदी ने बनाये थे
पतझड़ जो उतरा नहीं हैं पेड़ों से
आज तक
सूनी डालियाँ, कुछ सूखे पत्ते
रेत में भिगोये थे
कजरारे बादल, बारिश का मौसम
सब लौट आयें हैं आज फिर
बस तुम नहीं…
शाखें सारी खिल गयी हैं पत्तों से
सावन वही, लौट आया है
आज फिर
बस तुम नहीं…
वह सूखी नदी फिर बहने लगी है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २०००