तन्हा हूँ…
हूँ मैं अकेला
नाराज़ है ज़िन्दगी
नाराज़ हैं यह दिन
नाराज़ हैं यह पल
नाराज़ हूँ तुझ बिन
जहाँ मैं खड़ा हूँ
चारों तरफ बंजर ज़मीं है
दूर तक कोई नहीं है
न अपने
न कोई पराया
न रोशनी ही
न मेरा साया
तन्हा हूँ…
हूँ मैं अकेला
वक़्त के सिरे कई
हाथ काटकर चले गये
शाख़ों से गुज़रे
कई मौसम
और फिर हमीं से
सब नाराज़ हो गये
कुछ भी बटोरा नहीं
हमेशा गँवाया
सितम हँस के सहे
दर्दे-दिल
सभी से छुपाया
समझा नहीं कोई हमें
अपने आप में रहा
तन्हा हूँ…
हूँ मैं अकेला
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२