ग़मज़दा, सहमी हुई
रात के हाथों में
मेंहदी सजायी मैंने,
चाँद की मेंहदी…
सिसकता हुआ दिन
कब से आँधियों की गर्द में
भटका हुआ था,
तेरी उंगलियाँ पकड़कर ही
यह घर वापस लौटा है,
ख़ुशरंग शाम के वक़्त…
ख़ुद मैंने ही
न छूकर देखा था कभी
दिल का शीशा
पहले से चिटका हुआ था…
तुमसे जो ग़म मिला है मुझको
ज़िन्दगी मानो शहद हो गयी है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३