बीते दिनों की गलियों में जब पाँव पड़ते हैं तो
अपने आपको तुझमें ढूँढ़ने लगता हूँ मैं
दिल के ज़ख़्म बर्फ़ की तरह जमने लगते हैं
और उदासियों की नज़्म उन्हें गरमाती रहती है…
मैं जानता हूँ पिछला कुछ भी बदला नहीं जा सकता
फिर भी ‘काश!’ की परछाईं मेरा पीछा नहीं छोड़ती
काश यूँ न होता, काश वैसा न किया होता, काश!
बस यही आवाज़ें मन में गूँजती रहती हैं…
सन्नाटों में झींगुर जाने किसको सदा देते हैं
चाँदनी ज़मीन पर जाने क्या ढूँढ़ती रहती है
मैं बंद कमरे में बैठा, खिड़की से बाहर देखता हूँ
तेरी यादें गली में टहलती नज़र आती हैं मुझे…
मेरी राह वही है जहाँ उस रोज़ देखा था तुम्हें
जब गुज़रता हूँ आँखें वही लम्हें ढूँढ़ती हैं
और हक़ीक़त के हाथ वहम के परदे उठा देते हैं
रह जाता दिल में गूँजता हुआ एक सन्नाटा…
मेरी ज़िन्दगी के पिछले सात पन्ने तुमने लिखे थे
जिनको मैंने अपने ख़ाबो-ख़्याल से सजाया था
कच्ची स्याही से लिखे वह लम्हों में बुने हर्फ़
लाख कोशिशों के बावजूद भूल नहीं पाया हूँ…
न मेरा नाम याद रखना, न मेरी चीज़ें सँभालना
न मेरी शक़्ल याद रखना, न मेरी वो बातें
तुम मुझे भुला दो बस यही दुआ करूँगा
याद आऊँ तो नाम न लेना फ़लाँ कह देना मुझे…
मुझको भूल जाने वालों को मैं भूल जाता हूँ
भीड़ में उनके चेहरे तक याद नहीं रखता मैं
तुम मेरा एक ख़ाब हो जिसे भूलना चाहता हूँ
और ज़हन से रोज़ यही इक बात उतर जाती है…
ख़ुदा तुम्हें मुझसे हसीन मुझसे ज़हीन कोई भी दे
और न दे तुम्हें तो कोई मेरे जैसा दीवाना
गो कि यकता हूँ मैं सारे ज़माने में
और तुम मुझ जैसा दूसरा ढूँढ़ नहीं पाओगी…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००५