वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
थोड़ा-सा और क़रीब हमारे
वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
बड़ी रहमत की थी
जो आये किसी बहाने से
उनके चेहरे पर थी
दबी-सी मुस्कुराहट
आँखें कह रही थीं
अनकहे अफ़साने
वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
कुछ न कहकर भी
सब कुछ कह गये
तोहफ़े में हमें
अपनी यादें दे गये
वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
दिल ने चाहा था
कुछ देर और ठहरें
और कुछ देखें नज़ारें
जो सजाये थे मैंने
वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
पहला करम था उनका
जब नज़रें मिलायी थीं
नज़रें मिलाकर
निगाहें झुकायी थीं
वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
फ़र्श पर जो निशाँ बने
वह तो मिट गये
मिटे कब वह निशाँ
जो दिल पर रह गये
वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
दिल चाहता था
वह पास बैठें हमारे
दीदार करें हम
खींचे उनकी तस्वीरें
वह कहाँ चले गये
जो कल घर आये थे हमारे
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९