वक़्त का पहना उतार आये
कुछ लम्हे मरके गुज़ार आये
ख़ाबों में सही अपना तो माना
दिल को मेरे अपना तो जाना
खट्टे-मीठे रिश्ते चख लिये हैं
कुछ सच्चे पलकों पे रख लिये हैं
ख़ाहिशों का बवण्डर है दिल
दिल को उसके दर पे छोड़ आये
तेरी रज़ा क्या मेरी रज़ा क्या
वफ़ाई-बेवफ़ाई की वजह क्या
दस्तूर-ए-इश्क़ से रिश्ते हुए हैं
दिलों में रहकर फ़रिश्ते हुए हैं
ख़ला-ख़ला सजायी एक महफ़िल
महफ़िलों से उठके चले आये
वक़्त का पहना उतार आये
कुछ लम्हे मरके गुज़ार आये
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
6 replies on “वक़्त का पहना उतार आये”
खट्टे-मीठे रिश्ते चख लिये हैं
कुछ सच्चे पलकों पे रख लिये हैं
ख़ाहिशों का बवण्डर है दिल
दिल को उसके दर पे छोड़ आये
kya bat kah gaye hazoor……bahut khoob…..
तेरी रज़ा क्या मेरी रज़ा क्या
वफ़ाई-बेवफ़ाई की वजह क्या
“bhut khub”
Regards
thanks to both of you!
विनय जी,
आपका ब्लोग पढ़ा। बड़ा अच्छा लगा। इतनी छोटी-सी उम्र में जीवन की कितनी बड़ी सच्चाई सामने ले आये? धन्यवाद।
@ रज़िया जी, शुक्रिया… इतनी तारीफ़ के लिए… बस साथ बनाये रखिये…
आपकी प्रतिक्रिया के उत्तर स्वरूप: ‘अपने तजर्बों को रहनुमा करना ही जीवन है!’
kafi khubsurat hai aapki kavita ,padhkar man ko chhu gayi