कुछ धुँआ-सा बीती गलियों से उठता है
जो साँसों में चुभता है और आँखों में गलता है
हर्फ़ याद आते हैं मायनों के साथ
हर एक भेद किसी बादबाँ-सा खुलता है
आइनों से धूल पोंछ दी मैंने मगर
मेरा चेहरा कहाँ आज भी उसमें दिखता है
कुछ तो साँस लेता है इस दिल में
इक पुराना दर्द नये दर्द-सा जलता है
बचपन से ऐसी ही तस्वीरें देखी हैं मैंने
सूरज कोहसारों से उगता समन्दरों में ढलता है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’