आपकी ख़िदमत में अपना सलाम बजा लाते हैं
अपनी मोहब्बत की आप तक इल्तिजा लाते हैं
सजा लीजिए अपनी ज़ुल्फ़ों में गुलाब की तरह
अपनी मोहब्बत की आप तक हम फ़िज़ा लाते हैं
दूरियों को कहते हैं हिज्र, फ़ुर्क़त या जुदाई जो भी
इन सब के बाद ही विसालो-वस्ल मज़ा लाते हैं
नाज़नीनों की तो यह अदा रही है एक ज़माने से
चाहने वाले की चाहत में इम्तिहाने-क़ज़ा लाते हैं
हम भी कोई बीमारिए-इश्क़ में गये गुज़रे नहीं
अपनी चाहत के लबों पर चाहत की रज़ा लाते हैं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३