ऐनक उतार के ख़ुद को आइने में
कभी देखा होता
कि इक नूर का टुकड़ा हो
मेरे ख़ाबों में चुभता है जो
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ऐनक उतार के कभी
ख़ुद को आइने में देखा होता
कि इक नूर की बूँद हो
मेरी आँखों में भर आयी है जो
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ऐनक उतार के ख़ुद को कभी
आइने में देखा होता
इक नूर आँखों में उतर जाता
तुझे मालूम हो जाता
कितना हुस्न है तेरे पास
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ऐनक उतार के ख़ुद को कभी
आइने में देखा होता
तो तुम्हें मालूम होता
क्यों आजकल रात में
चाँद फीका रहता है
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ऐनक उतार के ख़ुद को कभी
आइने में देखा होता
तो तुम्हें मालूम होता
हुस्न-निसार हो तुम
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२