काश मेरी कोई सदा
तुम्हारे दिल में दस्तक देती
और यूँ होता कभी, कि –
तुम सदा को मेरे खा़बों में
पढ़कर मुझे ही सुनाती
और गले से लिपटकर रोती
न तुम मुझसे गिला रखती
न मेरा तुमसे कोई शिक़वा होता
चारों तरफ़ बस सर्द आहों में
प्यार की नर्म धूप होती
सारा दिन बैठकर मेरी आँखों में
तुम पढ़ती वो चिट्ठियाँ
जो तुम्हें कभी भेज नहीं सका
इक-इक बात पर लड़ती तुम मुझसे
कहती कि-
क्यों इतनी देर की कहने में
और मैं बयाँ करता अपनी दुविधा
अपना संकोच… अपनी झिझक…
और फिर
अपनी बाँहों में भर लेता तुम्हें…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४