बुझते हुए चराग़ों को अल्लाह बुझा दे कोई
सोज़े-गिरियाँ से हमको जला दे कोई
बदलता रहा ज़माना हमने उसको ही चाहा
हमसे ज़्यादा चाहके उसको दिखा दे कोई
और क्या चाहत मुझे उससे बढ़कर होगी
इस चाहत के साथ मुझको मिटा दे कोई
मैं सदा कहूँगा मोहब्बत को अपना खु़दा
ये खा़ब टूटने से पहले मुझको जगा दे कोई
असूल सब तरह निभा देखे हमने मगर
अब इन उसूलों में ही मुझको उलझा दे कोई
‘नज़र’ की तबीयत आजकल ज़रा नासाज़ है
ऐसे में दुनिया से मुझको उठा दे कोई
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’