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मेरा गीत

हूँ अकेला मैं यहाँ

हूँ अकेला मैं यहाँ
तेरी यादों में तरसता हुआ
तेरी तलाश में
दर-ब-दर भटकता हुआ

दर्द दिल में जागा है
मैंने रब से तुझे माँगा है
दिल है तू जान भी तू है
मेरा अरमान भी तू है…

बुझे मौसम बहारों के
उगे निशाँ पाषाणों के
खोयी हुई हर दिशा है
जागी हुई हर निशा है…

फूलों के बाग़ीचों से
तेरी आहटें आती हैं
कानों के क़रीब से मीठी
सरसराटें जाती हैं…

कह रही हैं कुछ ये हवाएँ
साँसों में घुल रही हैं ख़ुशबुएँ
तेरी क़सम अब फासला नहीं
अब देरी नहीं दूरी नहीं…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२

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मेरा गीत

आ सखी मिलके गले

आ सखी मिलके गले
मिटा लें हम अपने गिले
बहारों के मौसम में
ख़ुशबू वाले गुल हैं खिले

फूलो से ख़ुशबुएँ आती हैं
साँसों में महक जाती हैं
ऐसे तू दिल में आती है
साँसों में महक जाती है
मुझको दीवाना कर जाती है
सखी तू बहुत याद आती है

आ सखी मिलके गले
मिटा लें हम अपने गिले…

रात और दिन तुमको ही सोचता हूँ
अपने ख़ाबों में तुमको ही चाहता हूँ
मंज़िल है मेरी तू ही
दिल की हसरतों को बढ़ने से रोकता हूँ
बस एक है तू ही
जिसे ज़िन्दगी से ज़्यादा चाहता हूँ…

आ सखी मिलके गले
मिटा लें हम अपने गिले…

तूने इक नज़र मुझको देखकर
दिल पर ऐसा किया कुछ असर
दिल हो गया ख़ुद से बेख़बर
दिल चाहे तू बने मेरी हमसफ़र
सुन ले मेरी धड़कनों की सदा
जाने-जिगर ओ मेरी हमनज़र

आ सखी मिलके गले
मिटा लें हम अपने गिले…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२

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मेरा गीत

ये कैसी कशिश

ये कैसी कशिश ये कैसा नशा
तू ही है… मेरी जाने-वफ़ा
जाने-वफ़ा… मेरी जाने-वफ़ा

ख़्यालों में तू आने लगी
यूँ मोहब्बत तेरी छाने लगी
दिल है मेरा खोया हुआ
चाहत में तेरी डूबा हुआ
कुछ भी नज़र आता नहीं
बस तू नज़र आने लगी

मेरी जाने-वफ़ा
मेरी जाने-वफ़ा

ये कैसी कशिश ये कैसा नशा
तू ही है… मेरी जाने-वफ़ा
जाने-वफ़ा… मेरी जाने-वफ़ा

कोई नहीं आज तक मिला
जिसने मुझे बेचैन किया हो
जबसे मैंने तुझे देखा हसीं
मेरा दिल चैन पाता नहीं
आँखों में चेहरा तेरा बसा
सोहबत तेरी दिल ये गया

मेरी जाने-वफ़ा
मेरी जाने-वफ़ा…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२

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मेरा गीत

ज़िन्दगी का मतलब मैंने भुला दिया है

ज़िन्दगी का मतलब मैंने भुला दिया है
यार ने मेरे मुझे बेसहारा किया है

I feel myself deserted…(2)

अकेली हूँ हर पल मेरा कोई नहीं है
मैं हूँ यहाँ पर मेरा दिल कहीं है

I feel myself deserted…(2)

तूने मुझसे धोखा किया है
दिल लेके मेरा तोड़ दिया है
क्या बताऊँ मैं क्या मुझको हुआ है
यार ने मेरे मुझको बेसहारा किया है…

I feel myself deserted…(2)

कहानी मेरी मिटा दी है मैंने
ज़िन्दगी मेरी जला दी है मैंने

I feel myself deserted…(2)

कलियों के रंग धुल-से गये हैं
पेड़ों से पत्ते गिर भी गये हैं
पतझड़ का मौसम आके ठहरा हुआ है
यार ने मेरे मुझे बेसहारा किया है…

I feel myself deserted…(2)


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२

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मेरा गीत

गर तुम न होते तो क्या होता

नज़्म:

एक दिन मैं बिल्कुल अकेला
हमेशा की तरह तन्हा
सागर किनारे चट्टानों पर बैठा था
लहरें आ रही थीं
सागर किनारे की चट्टानों से टकराकर
लौट जा रहीं थीं,
पानी में गिरते सूरज के संग-संग
मंद-मंद पवन सागर की लहरों
पर तैरती दिख रही थी,
ये हसीन शाम किनारा
दूर तक फैला हुआ था, हमेशा की तरह
कुछ नहीं बदला सब वैसा ही है
पर आज आख़िरी चंद लफ़्ज़ों में
थोड़ा-सा फ़र्क़ नज़र आ रहा है
कि तुम मेरे साथ रू-ब-रू नहीं हो,
अफ़सोस नहीं है मुझे,
बस थोड़ा-सा दर्द महसूस होता है
सोचता हूँ…
‘गर तुम न होते तो क्या होता’

गीत:

सोचकर हैरानगी होती है अक्सर
गर तुम न होते तो क्या होता?
यह फूल न होते यह ख़ुशबू न होती
मधुवन न होता मोहब्बत न होती

ज़िन्दगी तन्हा अँधेरों में बसर होती
अगर हमसफ़र तेरा ख़्याल न होता
यह धड़कनें न चलतीं न उठतीं
दिल मेरा एक बेजान लाश होता

सोचकर हैरानगी होती है अक्सर
गर तुम न होते तो क्या होता?
कलियाँ न खिलतीं भौंरें न फिरते
शमा न जलती परवाने न मिटते

पत्तों पर यह हवाएँ न झूलतीं
किताबों में इश्क़ नाम न होता
कोई सच भी कहता किसी से
तो किसी को एतबार न होता

 …गर तुम न होते तो क्या होता?


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२