काश कोई ऐसा होता
जो समझता दर्दे-दिल
वो राह हमें ऐसी बताता
ख़ुद मिल जाती मंज़िल
बर्बादियाँ भी देखी हैं मैंने
आबादियों से भी गुज़रा हूँ
जैसे मैं पहचानता हूँ सभी को
लोगों से यूँ मिला करता हूँ
काश कोई ऐसा होता
जो समझता दर्दे-दिल
वो राह हमें ऐसी दिखाता
ख़ुद मिल जाती मंज़िल
धीमे-धीमे बहता है लहू
नब्ज़ कभी-कभी खो जाती है
कैसे ज़िन्दा रहता हूँ,
बात ये मुझको उलझाती है
काश कोई ऐसा होता
जो समझता हाले-दिल
हाथ थामकर मेरा
मुझे समझाता राज़े-दिल
काश कोई ऐसा होता
जो समझता दर्दे-दिल
वो राह हमें ऐसी बताता
ख़ुद मिल जाती मंज़िल
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२