तुम न आये
यह मौसम भी आ गया
एक शक़ था दिल में
वह भी घाव खा गया
रेत जो उड़ रही थी
बारिश की बूँदों में जम गयी है
पानी जैसी बह रही थी
कच्चे धागों में बँध गयी है
तुम न आये
यह मौसम भी आ गया
एक शक़ था दिल में
वह भी घाव खा गया
जैसे कोई आ रहा होगा
ऐसी चाप सुनायी दे रही है
मैं जिसे ढूँढ़ता हूँ
वो ज़िन्दगी कहीं तो जी रही है
तुम न आये
यह मौसम भी आ गया
एक शक़ था दिल में
वह भी घाव खा गया
भीगी आँखों में तेरा चेहरा था
ग़मी का मौसम गहरा था
दर्द मिला तो मिला मुझे
आसमाँ का चाँद भी खो गया
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२