चाँदनी रातें
ढल रही हैं
बढ़ रहे हैं फ़ासले,
दो-दो बालिश्तों का
फ़र्क़ है
फिर भी हैं हौसले
आना-जाना
रात-दिन सुबह-शाम
सीने में कुछ
साँसों का एहतमाम
रंगीन फ़िज़ाओं से
दोस्ती रखना
बाक़ी से
न दुआ न सलाम
ज़िन्दगी को चाहिए
दो पल की खु़शी
चाहे लगे
कितना भी ऊँचा दाम
अब वह लकीर
मैंने अपने हाथ में खोद ली है
जो मुझे
तुझ तक पहुँचायेगी
एक दिन
मैं आऊँगा वहाँ
जहाँ तू मुझे मिल जायेगी…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९