गुज़रता है जब
कोई लम्हों पर से
तकलीफ़ बहुत
दिल को होती है
हर कश पर धुँआ
इतना उठता है
जितनी ज़्यादा
हमें ख़्वाहिश होती है
ग़ुमान है दिल को
थोड़ी-सी तसल्ली भी
चाहता है उतनी ही
जितनी अच्छी होती है
अर्द* हो चाहे रात
या मिट्टी की साँस
जलकर तो जिस्म की
राख भी खा़क होती है
[*पीड़ा]
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९