जाते रहना
बहाते रहना
पतझड़ के मौसम
अब इनसे
इश्क़ हो चला…
सावन की घटा
बादल की बिजली
हटाते रहना
मिटाते रहना
अब इनमें रहता है
दर्द घुला…
रंग भी कोई
चढ़ता नहीं
जो चढ़ता है
बह जाता है
हज़ार गुल पलाश के
खिला करते हैं
जो खुश्बू से
अंजान रहते हैं
वैसे ही कोई है
मैं शायद मैं ही
एक सिर्फ़ मैं ही…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९