मुझे तुमसे मिलके मुकम्मिल होने का वक़्त है
एक सूखा हुआ दरया हूँ जिसको घटा की प्यास है
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मेरे दामन में खु़शियाँ समेट के रख दे वह
मैं उसे अपना चारागर इब्ने-मरियम कहूँ
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वक़्ते-मुराद हासिल हो तमन्ना खा़ली ना जाये
मैं हूँ अपने बोझ तले असरे-दुआ खा़ली ना जाये
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अभी हुआ क्या यह तो इब्तदा है
इन्तहाँ के मज़े आइन्दा लूटिएगा
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जला दूँ शमाओ-इश्क़ दिले-ख़ाराबाँ में
कि वह बदनाम होती है तो होवे
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तूने कुछ ऐसा किया हो मैं हो जाऊँ शर्मिन्दा
मेरे हिसाब में ऐसी शर्मिन्दगी लाज़मी नहीं
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तेरे ही नूर से रोशन हुई थी निगाह मेरी
और आज मैं तुझसे निगाह चुरा रहा हूँ
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जानता नहीं जाने क्यों मुझे यह यक़ीन है
मासूमियत का नक़ाब न होगा तेरे चेहरे पर
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२-२००४