छेड़ते क्यों हैं जब मुझसे काम नहीं है
काम ऐसा भी क्या जिसमें ईनाम नहीं है
उनसे कह दो न कुरेदें राख़ को बेकार
ऐसी दीवानगी में मेरा कहीं नाम नहीं है
खु़शी से मेरा ताअल्लुक़ क़ता ही रहता है
दर्द भी उधर ज़ेरे-बाम नहीं है
मेरी मोहब्बत का उनपे इतना तो असर है
उनके नाम में वो दुश्नाम नहीं है
इक कसक उसकी आवाज़ में नज़र आयी
सलाम में छिपा कोई इल्ज़ाम नहीं है
ये अश्क़ बह जायें अगर बहते हैं
मेरी दो आँखों में अब इनका मक़ाम नहीं है
फ़ुरक़त में भी फ़रहत है इस दिल को
उससे कहे कौन मेरा ये अंजाम नहीं है
उसके हुस्न की शफ़क़ो-उफ़क़ ये है
सुबह सुबह नहीं है शाम शाम नहीं है
उन्हें याद है आज तक अपना ये ग़ुलाम
है जो किसी का आशिक़ वो ग़ुलाम नहीं है
किसको बताऊँ मैं ‘नज़र’ भेद अपना
बाद उसके दिल को मेरे आराम नहीं है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’