दरियाए-दर्द में उमड़ा एक सैलाब है
ख़ाहिशों ख़्यालों में एक गिरदाब है
शाम ही से यह दिल मेरा बहुत बेताब है
रातों और दिनों में उलझा हुआ हिसाब है
चाँद को देखा था कल तेरी डगर तेरी में
तेरी यादों ने फिर उलटा अपना निक़ाब है
ख़ामोश है खुशबू किसलिए आज चमन में
बंद कलियों में शायद इसका जवाब है
कँवल-कँवल भीगा है ओस में सारी रात
मेरी आँखों में तिरता तेरा हर ख़ाब है
सूरज की किरन में शीत का एहसास तुम
और इसी एहसास में खिलता गुलाब है
औराक़े-गुल पे बोसा तेरे लबों का
मेरे दिलो-दिमाग़ पे छिटकाता तेज़ाब है
हाल क्या पूछिए ‘नज़र’ का’ सब अयाँ है
सीना उसका दर्दो-ग़म से सीमाब है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३