फिर चाँद ग़ुम और उदास शब है
मेरे हर्फ़ों का नया एक मतलब है
ढल रही है साँस मेरे बदन में
तुम्हारी खा़मोशी का क्या सबब है
भीगी हुई आँखों के किनारे तर हैं
तुम्हारी आँखों अब किसकी तलब है
हम मर चुके हैं तुमपे जानम
साँस लेते रहने का अजीब ढब है
क्या-क्या छुपायें तुम्हारे दिल से
हाल बद् से बद्तर हमारा अब है
नसीब पर छोड़ें कैसे जो दिल की बात है
मेरे मसीहा तेरा प्यार मेरा रब है
तुझको कभी हम भी जाने हम भी परखें
मगर तू इम्तिहान देता कब है
गुस्सा हमपे बेग़ानावार करते हो
तेरा पल में बदल जाना ग़ज़ब है
तूने हमको जाना कहाँ है क़ाफ़िर
ज़ाहिदा इश्क़ ही सच्चा मज़हब है
सादगी रूप की हमने आँखों में भर ली
तेरा सादापन हुस्न का अदब है
तुमसे गिला हमको न मानने का नहीं
देख लो एक बार कोई जाँ-ब-लब है
हम रुके थे तुमको जी भर देखने को
तेरा इक नज़र देखना ग़ज़ब है
होंठों से चूम लो मेरी इस ग़ज़ल को
तेरे होंठों के लिए ही तिश्ना-लब है
खा़बीदा आँखें तेरे ही सपने बुन रही हैं
‘नज़र’ को दिन-रात तेरी तलब है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’