दिल के दाग़ सभी ज़ख़्म हुए
वह ख़फ़ा हुआ हम ख़त्म हुए
कोसूँ क्या अपनी क़िस्मत को
हमें भी कुछ नये इल्म हुए
हम गुलशने-रूह थे कभी
बिग़ैर जानाँ के ज़ोफ़ जिस्म हुए
नशात ज़मीं देखी सावन में
अब अधूरी एक नज़्म हुए
फ़ुरसत में भी फ़ुरसत नहीं
रोज़ ही मेरे ख़ाब क़ल्म हुए
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
One reply on “दिल के दाग़ सभी ज़ख़्म हुए”
Brilliant…