रोज़े – शामे – दीवाली कोई नूरे – चराग़ नहीं
चौखट सूनी दिल वीराँ तन्हा – तन्हा रहता है
पलकों पर शबनम के क़तरे फीका-फीका चाँद
और गली में सब सूखा-सूखा बंजर-सा रहता है
न फूल नकहता है न कोपल कोई खुलती है
गुलाबी बेलों पर सब बेरंग ख़ुश्क – सा रहता है
काली रातों-सी तेरी लटें वो जिनमें जी उलझा था
उनका तो अब आँखों पर कुछ साया-सा रहता है
मज़ा कहाँ अब आतिश में कहाँ पटाखों में वो धूम
मेरे कानों में सन्नाटा-सा कुछ चीखता रहता है
मंदिर में जब हाथ जोड़कर मेरा सिर झुकता है
मेरा यह मन बस तुमको ही माँगता रहता है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३