नज़र बचते बचाते लड़ ही गयी
मय उन आँखों की हमें चढ़ ही गयी
पूछो ज़रा गुलपोश से वह कहाँ है
आज मेरी साँस सीने में अड़ ही गयी
तस्व्वुर से तेरे सबात है हमें
जान न पाकर तुम्हें धड़ ही गयी
तुमको देखा तो क्या हसरत बची
प्यार की मस्ती हमें चढ़ ही गयी
हम ख़ाक थे दिल ख़ानाए-ख़ाली था
सरे-राह ज़ीस्त हमसे भिड़ ही गयी
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३