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मेरी ग़ज़ल

ख़ाली सीने में कुछ धुँआ-धुँआ-सा है

ख़ाली सीने में कुछ धुँआ-धुँआ-सा है
जिस सिम्त देखता हूँ दिल बदगुमाँ-सा है

दर्द को दर्द हो ऐसा होता नहीं
इसीलिए ख़ातिर में यह नौ-जवाँ-सा है

ख़ुदा ही मेहर से मैं रहा सदियों के फ़ासले पे
आज भी वह ना-मेहरबाँ-सा है

ढूँढ़ता हूँ मैं ख़ुद को उस गली में
जिसमें मुझे ज़िन्दगी होने का नुमाया-सा है

रोशनी में भिगो दिया शबे-महफ़िल को जिसने
तेरी रंगत का शुआ-सा है

एहसासात दफ़्न हैं किसी कब्र में
दर्द दिल का आज कुछ बे-ज़ुबाँ-सा है

खींच लिया जिगर को दाँतों से लब तक
आज महफ़िल में यह कमनुमा-सा है

तेरी दीद से बादशाहत मिली थी मुझे
ज़ख़्म कहता है तेरा साया हुमा-सा है

बदनसीबी गर्दिशे-अय्याम है बस
वक़्त यह एक इम्तिहाँ-सा है

तमाशा बहुत हुआ तेरे जाने के बाद
जो कुछ भी हुआ ज़ख़्मे-निहाँ-सा है

शज़र बेसमर हैं नकहते-गुल भी नहीं
मौसम यह ज़र्द ख़िज़ाँ-सा है

ज़ीस्त नवाज़ी गयी सो जी रहे हैं
मगर जीना मुश्किल मरना आसाँ-सा है

मैं गर तेरा तस्व्वुर करूँ
बूँद-बूँद शबनम का गिरना भी गिरियाँ-सा है

तुम नहीं गुज़रते इस राह से
मेरी गली का हर पत्थर रेगिस्ताँ-सा है

वह उजाले जिनसे चौंक गयीं थीं मेरी आँखें
मंज़र वह भी कहकशाँ-सा है

ना पूछ कब से तेरे दीवानों में शामिल हूँ
हाल मेरा भी कुछ-कुछ बियाबाँ-सा है

नीली शाल में लिपटी देखा था तुझे
तब से जाना कि चाँद किसी माहलक़ा-सा है

तुम आये घर मेरे आस्ताने तक
कि अब का’बा ही मेरे सँगे-आस्ताँ-सा है

इश्क़ में हमसा न पायेगा कोई
न होना मेरा उनकी बज़्म में हरमाँ-सा है

हम वस्ल की तमन्ना में मुए जाते हैं
ज़ुज तेरे सभी से वस्ल हिज्राँ-सा है

शगून तेरे देखने भर से होता था
आज इन आँखों में हर क़तरा टूटा-टूटा-सा है

बेज़ार है चमन तितली ज़र कैसे पिये
अब कि मौसम भी कुछ बेईमाँ-सा है

ज़हर हमको दिया दवा बता के ख़ुदा ने
ज़ीस्त जो बख़्शी यह भी सौदा-सा है

‘नज़र’ बातें हैं बहुत उसके इश्क़ो-ग़म में
जिसका दिल पर निशाँ-सा है


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३

By Vinay Prajapati

Vinay Prajapati 'Nazar' is a Hindi-Urdu poet who belongs to city of tahzeeb Lucknow. By profession he is a fashion technocrat and alumni of India's premier fashion institute 'NIFT'.

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