ख़ाली सीने में कुछ धुँआ-धुँआ-सा है
जिस सिम्त देखता हूँ दिल बदगुमाँ-सा है
दर्द को दर्द हो ऐसा होता नहीं
इसीलिए ख़ातिर में यह नौ-जवाँ-सा है
ख़ुदा ही मेहर से मैं रहा सदियों के फ़ासले पे
आज भी वह ना-मेहरबाँ-सा है
ढूँढ़ता हूँ मैं ख़ुद को उस गली में
जिसमें मुझे ज़िन्दगी होने का नुमाया-सा है
रोशनी में भिगो दिया शबे-महफ़िल को जिसने
तेरी रंगत का शुआ-सा है
एहसासात दफ़्न हैं किसी कब्र में
दर्द दिल का आज कुछ बे-ज़ुबाँ-सा है
खींच लिया जिगर को दाँतों से लब तक
आज महफ़िल में यह कमनुमा-सा है
तेरी दीद से बादशाहत मिली थी मुझे
ज़ख़्म कहता है तेरा साया हुमा-सा है
बदनसीबी गर्दिशे-अय्याम है बस
वक़्त यह एक इम्तिहाँ-सा है
तमाशा बहुत हुआ तेरे जाने के बाद
जो कुछ भी हुआ ज़ख़्मे-निहाँ-सा है
शज़र बेसमर हैं नकहते-गुल भी नहीं
मौसम यह ज़र्द ख़िज़ाँ-सा है
ज़ीस्त नवाज़ी गयी सो जी रहे हैं
मगर जीना मुश्किल मरना आसाँ-सा है
मैं गर तेरा तस्व्वुर करूँ
बूँद-बूँद शबनम का गिरना भी गिरियाँ-सा है
तुम नहीं गुज़रते इस राह से
मेरी गली का हर पत्थर रेगिस्ताँ-सा है
वह उजाले जिनसे चौंक गयीं थीं मेरी आँखें
मंज़र वह भी कहकशाँ-सा है
ना पूछ कब से तेरे दीवानों में शामिल हूँ
हाल मेरा भी कुछ-कुछ बियाबाँ-सा है
नीली शाल में लिपटी देखा था तुझे
तब से जाना कि चाँद किसी माहलक़ा-सा है
तुम आये घर मेरे आस्ताने तक
कि अब का’बा ही मेरे सँगे-आस्ताँ-सा है
इश्क़ में हमसा न पायेगा कोई
न होना मेरा उनकी बज़्म में हरमाँ-सा है
हम वस्ल की तमन्ना में मुए जाते हैं
ज़ुज तेरे सभी से वस्ल हिज्राँ-सा है
शगून तेरे देखने भर से होता था
आज इन आँखों में हर क़तरा टूटा-टूटा-सा है
बेज़ार है चमन तितली ज़र कैसे पिये
अब कि मौसम भी कुछ बेईमाँ-सा है
ज़हर हमको दिया दवा बता के ख़ुदा ने
ज़ीस्त जो बख़्शी यह भी सौदा-सा है
‘नज़र’ बातें हैं बहुत उसके इश्क़ो-ग़म में
जिसका दिल पर निशाँ-सा है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३