एक गिरह ज़ुबाँ में, सब के होती है
वक़्त लगते ही लफ़्ज़ अटका देती है
लोग क्या समझते हैं
मैं ना-पाक हूँ या मौक़ापरस्त!
अजब माहौल है, इस मेरी जा का
कि मीर जैसा ज़हन किसी का नहीं
एक मज़ाक़ लगता हूँ,
या लोग मुझको मज़ाक़ बनाते हैं
सामने कुछ-का-कुछ कह के
पीठ पीछे मुस्कुराते हैं…
सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है
हमें भी परखना है जहाँ,
चलो हर ज़ुबाँ की गिरह गिनते हैं
हलक़ से उतरे या न उतरे सच
हम बेफ़िक्र रहते हैं…
मेरे जानिब जो झुकते हैं,
मुझसे तरक़ीब रखते हैं…
‘मतलब से ही खुलते हैं ज़हन के दरवाज़े
मतलब से ही बंद होते है दिलों के कपाट
समझ कि तेरा यार कोई नहीं होगा-
वजहसार बन ‘नज़र’ तन्हा वक़्त काट’
यह पुरज़े जो उतरे हैं तेरी कलम से ‘विनय’
सफ़्हों पे उतर के खु़द बयाँ हुआ है तू…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३