हासिल नहीं मिलता
किनारे तक तो आते हैं
मौसम पत्तों का
टूटके गिर भी जाता है
आवाज़ बिखर भी जाती है
बादलों का कारवाँ
आकर लौट भी जाता है
मैं कभी कुछ जो
ढूँढ़ा करता हूँ
खु़द को नहीं मिल पाता है
आसमान के पर कितने लम्बे हैं
कि जिन्हें मैं
पकड़ नहीं पाता हूँ
आवाज़ जो कभी आयी हो
और जो मैंने दरवाज़ा खोला हो
तो तनहाई पेड़ों पर
पीले पत्तों-सी दिखायी देती है
जाने कैसे लगे हैं
कि गिरते ही नहीं
कच्चे रिश्ते जो खुले हैं
उनका खुलना ही अच्छा है
पके धाग़े जो वक़्त ने कच्चे किये हैं
अब वो टूट ही जायें
तो अच्छा है…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २०००