हर साँस को लहू में डबोकर जीते हैं
क्योंकर हम इस क़दर जीते हैं
दिल के शिगाफ़ों से लहू रिस रहा है
हम दिल को सीने से लगाकर जीते हैं
आइना भूल गया हमारे घर का हमें
हम जाने क्या जुस्तजू कर जीते हैं
चोट खा गया है एक गुल टहनी पर
हम उसको जी में बसाकर जीते हैं
मुदाम अश्आर से इक सदा आती है
हम आपका तस्व्वुर कर जीते हैं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४