हर शाम जाने क्या खल रहा है
कुछ है तो सही ये दिल जल रहा है
खो जाने का ज़रा-सा ग़म नहीं मुझे
इतना ही ये शाम का सोना टिघल रहा है
फ़ुरसत होती तो शाम पकड़ते थे
अब हर लम्हा फुर्क़त में बदल रहा है
दरख़्तों का मौसम बदलता रहा है
ये आज वैसा नहीं’ जैसा कल रहा है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२