बहुत उदास था मैं आज सारा दिन
सोचा कि थोड़ी देर तुमसे बात कर लूँ
सो ज़रिया-ए-नज़्म…
तुमसे बात कर रहा हूँ…
सोचा जब कभी मिलोगी
यह नज़्म खु़द पढ़ लोगी,
तुम्हें आदत जो है
बिन माँगे मेरी किताब पढ़ने की…
खु़द से सारा दिन बचता फिरता रहा
कहीं जो कोई हमदर्द मिला
तो बस… दो पल के लिए…
मुझसे लोग अक्सर ऐसे ही मिलते हैं…
तुम्हारे सिवा…
तुम्हें भूल जाने की कड़वी बातें
मेरा पीछा करती रहीं,
और मैं सारा दिन…
तन्हाई से भागता रहा
आख़िर रात हुई
और मैं फिर तन्हा हूँ
मुझे तुम पागल कह लेना
चाहो तो दीवाना भी
पर सच तो यह है कि
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
और…
हमेशा-हमेशा करता रहूँगा…
बदन भटकता है तड़पता है
इक बदन की ख़ाहिश लिए
मगर मैं हाँ मैं तड़पता हूँ
तुम्हारे खा़ब… तुम्हारे एहसास…
तुम्हें पाने के लिए
मुझे छोड़कर तुम कहीं मत जाना
कहीं मत जाना यही इल्तिज़ा है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
2 replies on “इक बदन की ख़ाहिश लिए”
नज्म के जरिये बात करने की बात ही कुछ और है
बात भी हो जाती है और बात भी बन जाती है
बात की बात में बात निकल आती है
और कभी कभी तो अपने आप इक नज्म भी बन जाती
शुक्रिया ब्रिज साहब!