जिसकी यादों में गुज़ारता हूँ मैं सुबह-शाम
मंज़िल वह मेरी वह मेरा आख़िरी मुक़ाम
वह रंगीन शाम थी शाम वह गुमनाम थी
नज़रों में नज़ारों में वह वफ़ा बेनाम थी
हूर थी वह किसी चिराग़ का नूर थी
किसी किनारे से जैसे कोई कश्ती दूर थी
देखा जब हमने नज़रें थम ही गयीं
हमें जैसे मंज़िलों की राहें मिल ही गयीं
जिसकी यादों में गुज़ारता हूँ मैं सुबह-शाम
मंज़िल वह मेरी वह मेरा आख़िरी मुक़ाम
महफ़िल हसीन थी या ख़ूबसूरत समा था
उस पल के लिए जाने दिल मैं कहाँ था
आँखों की गहरी झील जिसकी नहीं तफ़सील
तोड़ दी पतंग किसी ने जब हमने दी ढील
उसका चेहरा जैसे शाम की गहराई में सवेरा
वह सवेरा जिसने किया मेरे दिल में बसेरा
जिसकी यादों में गुज़ारता हूँ मैं सुबह-शाम
मंज़िल वह मेरी वह मेरा आख़िरी मुक़ाम
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९