कोई आया है जाने के बाद क़ब्र पर
वह गया है दो गुल मुझे नज़्र कर
कोई तूफ़ाँ उठा था जो मिट गया है
दे गया है समन्दर जो लुट रहा है
लहरें काट देती हैं कभी साहिल को
साहिल लहरों के साथ बह रहा है
कोई आया है जाने के बाद क़ब्र पर
वह गया है दो गुल मुझे नज़्र कर
ठहरी हवा धूल पर कुछ निशाँ बाक़ी हैं
ख़ामोशी चीरकर सिसकियाँ आती हैं
नक़ाब उठाया जब कायनात मिट चुकी है
वह आँधी भी सब तबाह कर चुकी है
जो रह गया है दिल में वह वीराना है
ज़िन्दगी, साँसों का साथ निभाना है
कोई आया है जाने के बाद क़ब्र पर
वह गया है दो गुल मुझे नज़्र कर…
वह महज़ राख हाथों में भर सकते हैं
खाक पर अपना नाम लिख सकते हैं
हवा पर जो मेरे क़दमों के निशाँ छूटे
वह उन पर कभी नहीं चल सकते हैं
बहुत ज़्यादा इतना कर सकते हैं
बैठकर जाती हुई तारीख़ें गिन सकते हैं
कोई आया है जाने के बाद कब्र पर
वह गया है दो गुल मुझे नज़्र कर…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९