कल रात जली थी आँखों में
कल फाँस लगी थी साँसों में
दिल आज भी सहमा है
ग़म जैसे कोई गहना है
भूलके दिल आस-उजाले
रात की टेक लगाये बैठा है
फीका-फीका यह समा है
जलता-बुझता बाक़ी धुँआ है
कल रात जली थी आँखों में
कल फाँस लगी थी साँसों में
नींद आयी न रात उतरके
कुछ दाने गिरे दूर छितरके
मीठे-मीठे चाँद की मिसरी
दो ओंठ लगाकर पी ली है
अब कि रात जो आयी है
वह स्याही जैसी नीली है
कल रात जली थी आँखों में
कल फाँस लगी थी साँसों में
दिल आज भी सहमा है
ग़म जैसे कोई गहना है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२